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रोज़ तूफान आकर डराते रहे/ जहीर कुरैशी

रोज तूफान आकर डराते रहे
फिर भी, पंछी उड़ानों पे जाते रहे

एक पागल नदी के बहाने सही
हिमशिखर के भी सागर से नाते रहे

लोग सो कर भी सोते नहीं आजकल,
रात सपनों में जग कर बिताते रहे

मन से दोनों निकट आ न पाए कभी
रोज तन से जो नजदीक आते रहे

वे जो चुपचाप गुस्से को पीते रहे
मुठ्ठियाँ भींचकर कसमसाते रहे

झूठ, सच की तरह बोलने का हमें
राजनीतिज्ञ जादू सिखाते रहे

अंतत: देह उसकी सड़क बन गई
लोग आते रहे, लोग जाते रहे !