यहीं झड़े थे सूरजमुखी के फूल
जहां से मुड़ती हैं ये राहें
दीखती है उनकी लंबी चार दीवारी
मक्खियों की भिनभिनाहट के स्वर
गूंजते हैं कानों में
थिरकती है पांवों में लौह-जकड़नें
तड़क उठता है सदियों का संजोया अंतर्मन
घटकों का घर्षण
बहा ले जाता है अपनी धर में सहस्त्राब्दियां
आकार लेते हुए संकल्प
धूल धूसरित होते हुए
विलुप्तता के अबूझ मानचित्रा
फूलों की इन क्यारियों से
गुजरते हुए जाना था मैंने
कि इस भयानक समय में भी
लुप्त नहीं होता युगों का बहता इतिहास
विचारों की लुप्त नहीं होती नदियां
सपनों का नीला आकाश कहीं लुप्त नहीं होता।