जिस तरह पृथ्वी से
लुप्त होती हैं कुछ प्रजातियाँ
उसी तरह लुप्त होती हैं
हमारी ज़िन्दगी से कुछ चीजे़ं
कुछ चीजे़ं जो इस्तेमाल करते थे पिता
अब नहीं हैं हमारी ज़िन्दगी में
इस घर में
कोई नहीं पहनता धोती या टोपी
कोई नहीं लगाता चन्दन
इस घर में नहीं हैं
लोटा, दातुन, चौपड़ या मुगदर
इस घर में
कोई नहीं बाँचता सुखसागर
पिता के जाने के बाद
पता नहीं कब कहाँ और कैसे
लुप्त हो गईं ये चीजे़ं!
जैसे कभी-कभार मिल जाते हैं पृथ्वी पर
लुप्त हुई प्रजातियों के अवशेष
वैसे ही घ्ज्ञर के ओने-कोने
या पुरानी तस्वीरों में दिखाई दे जाती है
इन चीज़ों की बची हुई पहचान
बात सिर्फ़ इतनी ही होती
तो कहने की नहीं थी
पिता के खाने के पहले
खिलाते थे किसी भूखे को
और तृप्त होते थे खु़द
गाय कुत्तों और कौओं को पता था
उनके खाने का समय
वे गर्मी में खोलते थे प्याऊ
और जाड़ों में जलाते थे आग
पिता अक्सर होते थे
लोगों के सुख-दुख में शामिल चुपचाप
कहने की बात यह है
(और दुःखद भी!)
कि लुप्त हुई कुछ चीज़ों के
अवशेष होते ही नहीं
और वे कभी नहीं मिलते
घर के किसी भी कोने में!