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वज्र-ध्वजा-‌अंकुश-सरसिजके / हनुमानप्रसाद पोद्दार

(राग देस-त्रिताल)
वज्र-ध्वजा-‌अंकुश-सरसिजके मंगलमय चिह्नोंसे युक्त।
 उभरे हु‌ए अरुण शोभामय नख-शशि-किरणोंसे संयुक्त॥
 चिन्तन-कर्ताओंके हृदयोंका जो हरते तम अज्ञान।
 श्रीहरिके उन चरण-सरोजोंका मनसे नित करिये ध्यान॥
 जिनकी धोवनसे निकली अति पावन भागीरथी उदार।
 शिव हो गये परमशिव जिसके शुचि जलको निज मस्तक धार॥
 ध्याता‌ओंके पाप-पर्वतोंपर निपतित जो वज्र-समान।
 श्रीहरिके उन चरण-सरोजोंका मनसे करिये चिर ध्यान॥
 विधि-जननी श्रीलक्ष्मीजी जिनको अपनी गोदीपर धार।
 जलज-लोचना, देव-वन्दिता करती जिन्हें हृदयसे प्यार॥
 कान्तिमान निज कर-कमलोंसे लालित करती अति सुख मान।
 अज भव-भय-हर हरिके दोनों घुटने पिंडलीं शोभा-खान॥
 जङ्घा बलनिधि, नीलवर्ण असलके कुञ्सुम-सदृश सुन्दर।
 परम सुशोभित होती हैं जो ज्ञान-धाम खगपति ऊपर॥
 रुचिर नितब-बिब युग पावन पीताबरसे परिवेष्टिस्न्त।
 स्वर्णमयी काञ्चीकी लडिय़ोंसे जो रहते आलिङिङ्गत॥
 भुवन कोश-गृह उदर-देशमें नाभि-कूप सौन्दर्य-निधान।
 ब्रह्मात्तके आधार विश्वमय वारिजका उत्पस्थान॥
 मरकत-मणि-समान दोनों स्तन वक्षःस्थलपर चमक रहे।
 शुभ्र हारकी किरणावलिसे गौरवर्ण हो दमक रहे॥
 पुरुषोत्तम हरिका मुनि-जन-मोहन विशाल अति उर उन्नत।
 नयन-हृदयको सुखदायक लक्ष्मीका जहाँ निवास सतत॥
 अखिल लोक-वन्दित श्रीहरिका कबुकण्ठ शोभा आगार।
 परम सुशोभित करता कौस्तुभ-मणिको भी अपनेमें धार॥
 राजहंस-सम शङ्ख सुशोभित कर-पङङ्कजमें दिव्य ललाम।
 शत्रुवीर-रुधिराक्त गदा हरिकी प्रिय कौमोदकी सुनाम॥
 वनमाला शोभित सुकण्ठमें मधुप कर रहे मधु गुञ्जार।
 जीवोंके मलरहित तवसम कौस्तुभमणि अति शोभा-सार॥
 भक्तञनुग्रहरूञ्पी श्रीविग्रहका मुख-सरोज मनहर।
 सुघड़-नासिका, कानोंमें मकराकृञ्त कुञ्ण्डल अति सुन्दर॥
 स्वच्छ कपोलोंपर कुञ्ण्डल-किरणोंका पड़ता शुभ्र प्रकाश।
 इससे मुख-सरोजकी सुन्दरताका होता और विकास॥
 कुञ्ञ्चित केञ्श-राशिसे मण्डित मुख सब दिक्‌ मधुमय करता।
 निज छविद्वारा मधुकर-सेवित कमल-कोशकी छवि हरता॥
 नयन-कमल चञ्चल विशाल हरते उन मीनद्वयका मान।
 कमल-कोशपर सदा उछलते बनते जो शोभाकी खान॥
 उन्नत भ्रकुञ्टि सुशोभित हरिके मुख-सरोजपर मन-हरणी।
 नेत्रोंकी चितवन अति मोहिनि सर्वसुखोंकी निर्झरणी॥
 बढ़ती रहती सदा प्राप्तकर प्रेम प्रसाद-भरी मुसकान।
 विपुल कृञ्पाकी वर्षा करती हरती त्रय तापोंके प्रान॥
 श्रीहरिका मृदु-हास मनोहर अति उदार शरणागत-पाल।
 तीव्र शोकके अश्रु-‌उदधिको पूर्ण सुखा देता तत्काल॥
 भ्रूमण्डलकी रचना की मायासे प्रभुने मुनि-हित-हेतु।
 कामदेवको मोहित करने, जो तोड़ा करते श्रुति-सेतु॥
 तदनन्तर हरिके मन-मोहक हँसनेका करिये शुभ ध्यान॥
 जिससे अधर ओष्ठस्न्की विकसित होती अरुण छटा सुख खान॥
 कुञ्न्द-कली-से शुभ्र दाँत उससे कुञ्छ अरुणिम हो जाते।
 हरिकी इस शोभासे जगके संस्कार सब खो जाते॥