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वसन्तागमन / यतींद्रनाथ राही

पवन प्रकंपित
सुमन सशंकित
चिनगारी लग रही सुलगने
ऐसे भी अच्छे वसन्त के
दिन आते देखे हैं हमने।

वर्तमान के कुरुक्षेत्र में
हम अतीत के चरण पकड़कर
कुटिल कुचालित चक्रव्यूह में
टूट रहे हैं उलझ-उलझ कर
अन्धी क्षुद्र मानसिकताएँ
कुछ लँगड़ी वैचारिक गतियाँ
अपने खून पसीने से ही
बन न सकीं अपनी सहमतियाँ
भीतर-भीतर लाक्षाग्रह हैं
बाहर इन्द्रप्रस्थ के सपने

थोथे पाप-शाप-वरदानों-
में अपनी क्शमताएँ भूले
नक्शत्रों को चले नापने
पर त्रिशंकु से नभ में झूले
कहाँ सत्य है, कहाँ झूठ है
बड़ी जटिल है माया नगरी
पनघट उफन-उफन बहता है
पर प्यासी-तरसी हर गगरी
पिटे सीढ़ियाँ गढ़ने वाले
सिंहासन पर
अपने-अपने।

मलते हाथ रहे/मुट्ठी में
संकल्पों को बाँध न पाए
कर्म-कुकर्म स्वार्थ के लोलुप
लक्ष्य बिन्दु संधान न पाए
एक-एक क्शण माणक-मुक्ता
टूट-टूट कर रेत हो गए
जाने कब सुरभित उपवन ये
नागफनी के खेत हो गए
धरकर टूटी हुई बाँसुरी
बैठे श्याम भागवत जपने