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वहीं उचटेगी नींद / शलभ श्रीराम सिंह

हर तिलिस्म टूटता है एक दिन
एक दिन होता है हर जादू बेअसर
छिन्न-भिन्न होता है हर इंद्रजाल
एक न एक दिन
नींद के उचटने पर
 
सपनों को टूटना ही है
अपने बारीक़ से बारीक़
विस्तार के साथ बेवक़्त -बेमुकाम
हर सपने का अपना एक भयानक मोड़ है

वहीं छूटेगी प्रेमिका की बाँह
प्रेमी का कन्धा छूटेगा वहीं
वहीं छूटेगी बच्चे की उंगली
दोस्त का साथ वहीं छूटेगा
वहीं उचटेगी नींद
हर सपने का अपना एक भयानक मोड़ है


रचनाकाल : 1992 साबरमती एक्सप्रेस