तेजी से उतर कर बैठ जाता है
नदी के तल में लोहा
धँस जाता है मित्र वैसे ही अंतस में
बगर-बगर उठता है और भी मित्र
जैसे धान की कटाई के बाद
घर को कोना-कोना
हर विधा
हर शब्द
हर कथ्य
हर शैली
हर व्याकरण में
विहँसने लगता है एकबारगी
जैसे दिन में उजियाला
जैसे निशा में चांदनी
जब भी
जहाँ भी
विलग होना पड़ता है मित्र को
नहीं पहुँच पाता
दरअसल विदाई के बाद
शुरू होता है मिलन
विदाई होती कहाँ है दरअसल