विवेकहीन, अनैतिक है मेरा यह दिन :
भिखारी से मांगकर रोटी की भीख
दान करती हूँ उसे निर्धन धनी को ।
सुई में से गुज़ारती हूँ किरणें
डाकुओं के हाथों थमाती हूँ चाबी
निष्प्रभ मुख पर फेरती हूँ आभा ।
भिखारी मुझे रोटी नहीं देता
धनी मुझ से पैसा नहीं लेता
सुई के छेद में से गुज़रती नहीं किरणें ।
डाकू घुसता है बिना चाबी के,
तीन धाराओं में बहते है बुद्धू लड़की के आँसू
अर्थहीन, घटनाहीन इस दिन पर ।
रचनाकाल : 20 जुलाई 1918
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह