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लाई पैग़ाम मौजे-बादे-बहार
 
कि हुई ख़त्‍म शोरिशे - कश्‍मीर
 
दिल हुए शाद अम्‍न केशों के
 
है यह गांधी के ख़्वाब की ताबीर
 
सुलहजोई में अम्‍नकोशी में
 
काश होती न इस क़दर ताख़ीर
  ताकि होता न इस इस क़दर नुक़्साँ  
और होती न दहर में तश्‍हीर
 
बच गये होते नौजवां कितने
 
जिनको मरवा दिया बसर्फे-कसीर
 
ज़िक्र क्‍या उसका, जो हुआ सो हुआ
 
उन बेचारों की थी यही तक़दीर
 
काम लें अब ज़रा तहम्‍मुल से
 
दोनों मुल्‍कों के साहबे-तदबीर
 
दिल से तख़रीब का ख़याल हो दूर
 
और हो जायें माइले-तामीर
 
रंग इस में ख़ुलूस का भर दें
 
खिंच रही है जो अम्‍न की तस्‍वीर
 
अहदो-पैमां हों वक़्फे-इस्‍तक़लाल
 
उनकी तकमील में नहीं तक़्सीर
 
अहले-अख़बार हों वफ़ा आमोज़
 
क़ातए-दोस्‍ती न हो तहरीर
 
आमतुन्‍नास हों इधर न उधर
 
किसी उन्‍वान इश्तिआल पज़ीर
 
अलमे-आश्‍ती बलन्‍द रहे
 
अन्‍दरूने-नियाम हो शमशीर
 
हर दो जानिब की बेटियाँ-बहनें
 
हैं जो मज़बूरे-क़ैदे-बेज़ंजीर
 
जिस क़दर जल्‍द हो रिहा हो जाएँ
 
उनका क्‍या जुर्म ? क्‍यों रहें वह असीर
 
है तक़ाज़ा यही शराफ़त का
 
दोनों मुल्‍क़ों की इसमें हैं तौक़ीर
 
रहें आबाद हिन्‍दो-पाकिस्‍ताँ
 
तेरी रहमत से अय ख़ुदाए-क़दीर
 
ग़रज परवाज़ हो चुका महरूम
 
अब कहें कुछ ‘हफ़ीज़’ और ‘तासीर’
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