तमाम रात ग़ज़ल गाएँ दीदे-यार करें ।
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आज तो तल्ख़ी-ए-दौराँ भी बहुत हल्की है घोल दो हिज्र की रातों को भी पयमानों में । x हर शाम सजाए हैं तमन्ना के नशेमन हर सुबह मये तल्ख़ी-ए-अय्याम भी पी है । x ग़मज़दो तीशे को चमकाओ के कुछ रात कटे । x उठो के फ़ुर्सते दीवानगी ग़नीमत है । x इलाही ये बिसाते-ए-रक़्स और भी बसीत हो सदाए तीशा कामराँ हों, कोहकन की जीत हो । x हमदमो हाथ में हाथ दो सुए मंज़िल चलो मंज़िलें प्यार की मंज़िलें दार की कुए दिलदार की मंज़िलें दोश पर अपनी-अपनी सलीबें उठाए चलो ।
ये फ़र्क मेरी नज़र में एक नयापन है जो उम्र, तजुरबा और ख़ुद अहद-ए हाज़िर की नौवियत के अपने मासबक़ से मुख़्तलिफ़ होने का नतीजा है जो समाजी और शऊरी इर्तेक़ा की निशानदेही करता है, फिर भी इंसान, दोस्ती और सिमटा हुआ जमालियाती असर क़दर-ए मुश्तरिक है।
ज़माँ व मकाँ का पाबंद होने के बावजूद शेर बेज़माँ (टाइमलैस) होता है और शायर अपनी एक उम्र में कई उम्रें गुज़ारता है। समाज के बदलने के साथ-साथ इंसानी जज़्बात और एहसासात भी बदलते जाते हैं, मगर जिबल्लतें बरक़रार रहती हैं । तहज़ीब इंसानी जिब्बलतोंको समाजी तक़ाज़ों से मुताबक़त पैदा करने का मुसलसिल अमल है, जमालियाती हिस इंसानी हवास की तरक्की और नशोनुमा का दूसरा नाम है, अगर इंसान को समाज से अलग छोड़ दिया जाए तो वो एक गूँगा वहशी बन कर रह जाएगा, जो आपसी जिबल्लतों पर ज़िंदा रहेगा । फ़ुनून-ए- लतीफ़ा इंफ़रादी और एजतमाई तहजीब-ए-नफ़स का बड़ा ज़रिया है, जो इंसान को वहशत से शराफ़त की बुलन्दियों पर ले जाते हैं ।