पढ़ने वालों से / मख़दूम मोहिउद्दीन
शेर कहने की तरह शेर पढ़ना ख़ुद एक तख़लीक़ी अमल है । शेर कहते हुए शायर अपने आप को भी बदलता जाता है । शेर पढ़ने वाला भी न सिर्फ़ पढ़ने के अमल में बदलता है, बल्के वो एख़तरा भी करता है । अपने तज़रबे की बिना पर-- जब आप"गुल-ए-तर" पढ़ें तो शायद आप भी इस अमल से गुज़रें- "ज़हन", "सुर्ख़ सवेरा" और "गुल-ए-तर" में मुक़ाबिला भी करने लगेगा । शायद ये ख़याल भी आए के कलाम का ये मजमुआ अपनी सजधज- नफ़स-ए-मज़मून, हक़ीक़त, नुदरत, जमालियाती कैफ़ियत-ओ-क़म्मियत तअस्सुर के एतबार से "सुर्ख़ सवेरा" से मुख़्तलिफ है ।
बाज़ क़ारइन को "सुर्ख़ सवेरा" की वो नज़्में और अशआर शायद याद आ जाएँ जो इन्हें मुतासिर कर चुके हैं ।
रात भर दीद-ए नम्नाक में लहराते रहे
साँस की तरह से आप आते रहे, जाते रहे ।
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जो छू लेता मैं उसको, वो नहा जाता पसीने में ।
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ख़ुदा भी मुस्कुरा देता था जब हम प्यार करते थे ।
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क्या मैं इस रज़्म का ख़ामूश तमाशाई बनूँ
क्या मैं जन्नत को जहन्नुम के हवाले कर दूँ ।
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हयात ले के चलो, कायनात ले के चलो-
चलो तो सारे ज़माने को साथ ले के चलो ।
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ये जंग है जंग-ए आज़ादी ।
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इक नई दुनिया, नया आदम बनाया जाएगा ।
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सुर्ख़ परचम और ऊँचा हो, बग़ावत ज़िन्दाबाद ।
ये था "सुर्ख़ सवेरा" का रंग, "गुल-ए-तर" में ये रंग मिलेगा :
हुजूम-ए- बादाँ ओ गुल में हुजूम-ए-याराँ में
किसी निगाह ने झुक कर मेरे सलाम लिए ।
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तोफ़-ए बर्ग-ए गुल व बाद-ए बहाराँ लेकर
क़ाफ़िले इश्क़ के निकले हैं बयाबानों से ।
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कमान-ए अबरू-ए खूबाँ का बाँकपन है ग़ज़ल
तमाम रात ग़ज़ल गाएँ दीदे-यार करें ।
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आज तो तल्ख़ी-ए-दौराँ भी बहुत हल्की है
घोल दो हिज्र की रातों को भी पयमानों में ।
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हर शाम सजाए हैं तमन्ना के नशेमन
हर सुबह मये तल्ख़ी-ए-अय्याम भी पी है ।
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ग़मज़दो तीशे को चमकाओ के कुछ रात कटे ।
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उठो के फ़ुर्सते दीवानगी ग़नीमत है ।
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इलाही ये बिसाते-ए-रक़्स और भी बसीत हो
सदाए तीशा कामराँ हों, कोहकन की जीत हो ।
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हमदमो हाथ में हाथ दो
सुए मंज़िल चलो
मंज़िलें प्यार की
मंज़िलें दार की
कुए दिलदार की मंज़िलें
दोश पर अपनी-अपनी सलीबें उठाए चलो ।
ये फ़र्क मेरी नज़र में एक नयापन है जो उम्र, तजुरबा और ख़ुद अहद-ए हाज़िर की नौवियत के अपने मासबक़ से मुख़्तलिफ़ होने का नतीजा है जो समाजी और शऊरी इर्तेक़ा की निशानदेही करता है, फिर भी इंसान, दोस्ती और सिमटा हुआ जमालियाती असर क़दर-ए मुश्तरिक है।
ज़माँ व मकाँ का पाबंद होने के बावजूद शेर बेज़माँ (टाइमलैस) होता है और शायर अपनी एक उम्र में कई उम्रें गुज़ारता है। समाज के बदलने के साथ-साथ इंसानी जज़्बात और एहसासात भी बदलते जाते हैं, मगर जिबल्लतें बरक़रार रहती हैं । तहज़ीब इंसानी जिब्बलतोंको समाजी तक़ाज़ों से मुताबक़त पैदा करने का मुसलसिल अमल है, जमालियाती हिस इंसानी हवास की तरक्की और नशोनुमा का दूसरा नाम है, अगर इंसान को समाज से अलग छोड़ दिया जाए तो वो एक गूँगा वहशी बन कर रह जाएगा, जो आपसी जिबल्लतों पर ज़िंदा रहेगा । फ़ुनून-ए- लतीफ़ा इंफ़रादी और एजतमाई तहजीब-ए-नफ़स का बड़ा ज़रिया है, जो इंसान को वहशत से शराफ़त की बुलन्दियों पर ले जाते हैं ।
शायर अपने गिरदोपेश के खारजी आलम और दिल के अंदर की दुनिया में मुसलसिल कश्मकश और तज़ाद तख़लीक़ की कुव्वत-ए मोहर्रिका बन जाता है ।
शायर अपने दिल में छुपी हुई रोशनी और तारीक़ी की आवेज़िश को और रुहानी करब व इज़्तराब की अलामतों को उजागर करता और शेर में ढालता है । इस अमल में तज़ादात तहलील होकर तस्कीन व तमानियत के मुरक्कब में तबदील हो जाते हैं। शायर बहैसियत एक फर्द-ए मआशरा हक़ीक़तों से मुत्तसादिम और मुतासिर रहता है, फिर वह दिल की जज़्बाती दुनिया की ख़िलवतों में चला जाता है। रुहानी करब व इज़्तेराब की भट्टी में तपता है, शेर की तख़लीक़ करता है और दाख़ेली आम से निकल कर आलम-ए ख़ारिज में वापस आता है ताके नव-ए इंसानी से क़रीबतर होकर हमकलाम हो । बाहमा और बेहमा का यही वो नुक़्ता है जिसे ज़वालयाफ़्ता अदीब "अना" और "इंफ़रादियत" से ताबीर करता है ।
शेर में हम मावरा की हदों को छूते हैं, मगर शेर समाज से मावरा नहीं होता । कहा जाता है के शेर बेकारी की औलाद है, मगर मैं एक महरूम-ए बेकारी इंसान हूँ । "गुल-ए-तर" की नज़्में, ग़ज़लें इंतहाई मसरूफ़ियतों में लिखी गई हैं । यूँ महसूस होता है के मैं लिखने पर मजबूर किया जा रहा हूँ । समाजी तक़ाज़े पुरैसरार तरीके पर शेर लिखवाते रहे हैं । ज़िंदगी "हर लहज़ा नया तूर, नई बर्क़-ए तज्जल्ली" है और मुझे यूँ महसूस होता है कि मैंने कुछ लिखा ही नहीं ।
मख़दूम मोहिउद्दीन
हैदराबाद दक्कन
24 जुलाई 1961