936 bytes added,
01:14, 3 मार्च 2011 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-२
|संग्रह=जब भी वसन्त के फूल खिलेंगे / आलोक श्रीवास्तव-२
}}
{{KKCatKavita}}
<Poem>
प्रेम
पतझर बन कर झरता है
तुम्हारे चेहरे से
शरद की एक दोपहर में
ओस बन कर
ठहरा रह जाता प्रेम
खिड़की से दिखाई देते
पेड़ के पत्ते पर
शरद की एक रात में
यथार्थ और स्वप्न के बीच
जितना दिखता
उससे ज़्यादा ओझल
क्षीण इंद्रधनुष है प्रेम
आषाढ़ के खुलते
नीलाकाश का ।
</poem>