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{{KKRachna
|रचनाकार=ज़िया फतेहाबादी
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अश्क़ पलकों पे फिर सजाऊं क्या ?
फिर मुहब्बत के गीत गाऊं क्या ?
दिल ही जब बुझ गया तो ऐ शब ए ग़म
आँधियों में दिये जलाऊं क्या ?
आफ़तें हैं तो ज़िन्दगी भी है
आफ़तों से निजात पाऊं क्या ?
राज़दार ए अलम, शरीक ए ग़म
दर ओ दीवार को बनाऊं क्या ?
तीरह ओ तार है मेरी दुनिया
मेहर ओ माह का फ़रेब खाऊं क्या ?
लाख परदे , हज़ार चहरे हैं
ऐ " ज़िया " अब नज़र हटाऊं क्या ?