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वृन्द के दोहे / भाग ४

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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=वृन्द}}[[नीति के Category:दोहे / वृन्द]] <br>
'''नीति के दोहे'''
{{KKGlobal}}<br>
गुन-सनेह-जुत होत है, ताही की छबि होत ।<br>
गुन-सनेह के दीप की, जैसे जोति उदोत ॥31<br><br>
[[वृन्द]] ऊँचे पद को पाय लघु, होत तुरत ही पात ।<br>घन तें गिरि पर गिरत जल, गिरिहूँ ते ढरि जात ॥32<br><br>
आए आदर न करै, पीछे लेत मनाय । <br>
घर आए पूजै न अहि, बाँबी पूजन जाय ॥33 <br><br>
[[दोहे]] <br>  [[वृन्द]] <br>  ~*~*~*~*~*~*~*~~*~*~*~*~*~*~*~  {{KKGlobal}}<br>    गुन-सनेह-जुत होत है , ताही की छबि होत ।<br>गुन-सनेह के दीप की ,जैसे जोति उदोत ॥31<br> ऊँचे पद को पाय लघु ,होत तुरत ही पात ।<br>घन तें गिरि पर गिरत जल ,गिरिहूँ ते ढरि जात ॥32<br> आए आदर न करै ,पीछे लेत मनाय । <br>घर आए पूजै न अहि ,बाँबी पूजन जाय ॥33 <br> उत्तम विद्या लीजिए ,जदपि नीच पै होय । <br>पर्यौ अपावन ठौर को , कंचन तजत न कोय ॥34<br><br>
दुष्ट न छाड़ै दुष्टता ,बड़ी ठौरहूँ पाय । <br>जैसे तजै न स्यामता ,विष शिव कण्ठ बसाय ॥35<br><br>
बड़े-बड़े को बिपति तैं ,निहचै लेत उबारि ।<br>ज्यों हाथी को कीच सों ,हाथी लेत निकारि ॥36<br><br>
दुष्ट रहै जा ठौर पर ,ताको करै बिगार । <br>आगि जहाँ ही राखिये ,जारि करैं तिहिं छार ॥37<br><br>
ओछे नर के चित्त में ,प्रेम न पूर्यो जाय ।<br>जैसे सागर को सलिल ,गागर में न समाय ॥38<br><br>
जाकौ बुधि-बल होत है ,ताहि न रिपु को त्रास ।<br> घन –बूँदें कह करि सके ,सिर पर छतना जास ॥39<br><br>
सरसुति के भंडार की , बड़ी अपूरब बात ।<br>जौं खरचे त्यों-त्यों बढ़ै , बिन खरचै घट जात ॥40<br><br>