1,095 bytes added,
13:32, 18 मई 2011 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=रेशमा हिंगोरानी
|संग्रह=
}}
{{KKCatNazm}}
<poem>
बड़ी मुद्दत के बाद आज फिर उठी है कलम,
और सूखी थी सियाही जो, मुस्कुराई है!
मगर है फिर भी बेबसी ऎसी…
वो सभी कुछ जो कहना चाहा सदा,
आज कागज़ पे उतारूँ कैसे?
ख़याल उड़ रहे हैं दूर बादलों में कहीं,
टिके हुए हैं मगर अश्क तो वहीं के वहीं,
पलक झुकाऊँ तो,
इनको भी खो न जाऊँ कहीं...
अब इस कलम को टिकाना होगा,
सुनहरे ख़्वाब भुलाना होगा,
एक अर्से से जो हैं जाग रहीं,
अब इन आँखों को सुलाना होगा!
</poem>