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19:03, 24 मई 2011 मै पाऊँ तुमको जिधर भी निगाह करता हूँ
मै जान बुझ कर कोई गुनाह करता हूँ
किए हैं वक्त ने जो ज़ुल्म मेरे साथ कई
उन्हें मैं याद करूँ जब भी आह करता हूँ
मेरी निगाह पे छाई है ये पलकें किसकी
मै अपनी नज़्म से ख़ुद ही निकाह करता हूँ
हरेक पल मै तुम्हें देखता मंजिल की तरह
किसी भी सम्त अगर अपनी राह करता हूँ
वो नूर गैर की आंखों का है वो मेरा कहाँ
बुझे दीये से उजालों की चाह करता हूँ