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03:16, 28 जून 2011 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=द्विज
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'''मनहरन घनाक्षरी '''
''(वसंत से प्रकृति में परिवर्तन का अर्द्धजाग्रत अवस्था में वर्णन)''
आज सुख सोवत सलौनी सजी सेज पैं, घरीक निसि बाकी रही पाछिले पहर की ।
भड़कन लाग्यौ पौंन दच्छिन अलच्छ चारु, चाँदनी चहूँघाँ घिरि आई निसिकर की ॥
’द्विजदेव’ की सौं मोहिं नैंकऊ न जानि परी, पलटि गई धौं कबै सुखमा नगर की ।
औंरैं मैन गति, जति रैन की सु औंरैं भई, औंरैं भई रति, मति औंरैं भई नर की ॥१॥
</poem>