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02:00, 29 जून 2011 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=द्विज
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|पीछे=सीतल-समीर मंद हरत मरंद-बुंद / शृंगार-लतिका / द्विज
|आगे=बंदनवार बँधे सब कैं, सब फूल की मालन छाजि रहे हैं / शृंगार-लतिका / द्विज
|सारणी=शृंगार-लतिका / द्विज/ पृष्ठ 2
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<poem>
'''मत्तगयंद सवैया'''
''(ऋतुराज के स्वागतार्थ वन के सुसज्जित करने का वर्णन)''
बायु बहारि-बहारि रहे छिति, बीथीं सुगंधनि जातीं सिँचाई ।
त्यौं मधुमाँते-मलिंद सबै, जय के करषान रहे कछु गाई ॥
मंगल-पाठ पढ़ैं ’द्विजदेव’ सबै बिधि सौं सुखमा उपजाई ।
साजि रहे सब साज घने, बन मैं ऋतुराज की जानि अवाई ॥११॥
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