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02:09, 29 जून 2011 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=द्विज
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{{KKPageNavigation
|पीछे=बंदनवार बँधे सब कैं, सब फूल की मालन छाजि रहे हैं / शृंगार-लतिका / द्विज
|आगे=या बिधि की सोभा निरखि / शृंगार-लतिका / द्विज
|सारणी=शृंगार-लतिका / द्विज/ पृष्ठ 2
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<poem>
'''मनहरन घनाक्षरी'''
''(वन-शोभा वर्णन)''
जानि-जानि आपने ही गेह कै अराम, हरि-इंदिरा के आठौं जाम मन अटक रहैं ।
’द्विजदेव’ बन-दुति दूनिऐ निहारि कछु, माँख सौं मनोज मन-माँहि मटके रहैं ॥
मानसर ऐसी बनी बावरी बिलोकि तामैं, सुरपति हूँ के हिए अति खटके रहैं ।
नंदन के धोखैं ह्वैं अनंदित, इहाँई देव-बृंदन के बृंद नित भूले-भटके रहैं ॥१३॥
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