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<poem>
'''मौक्तिकदाम'''
''(परिपूर्ण ऋतुराज का प्रकाश रूप से वर्णन)''

नहीं नव अंकुर ए सरसात । धरयौ छिति हूँ कछु कंटक गात ॥
रहे नहिँ ओस के बुंद बिराजि । प्रसेद के बिंदु रही छिति छाजि ॥२२॥
</poem>
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