|संग्रह=यह जो हरा है / प्रयाग शुक्ल
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टकराता ही रहता है वह पेड़,
दीवारों से,
मकान की ।की।
लिए हुए हरापन, परत धूल की,
बूँदें बूंदें बारिश की । की। किरणें, चाँदनी ।चाँदनी।
और हवा
जो दिखती है सबसे
पहले उस पर । पर। टिकती हैं आँखें दुखी-सुखी ।सुखी।
देखो, देखो
पेड़ की रगों में भी बह रही
है वह कथा
जो इस वक़्त
तुम रहे हो सोच ।सोच।</poem>