भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पेड़ / यह जो हरा है / प्रयाग शुक्ल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

टकराता ही रहता है वह पेड़,
दीवारों से,
मकान की।

लिए हुए हरापन, परत धूल की,
बूंदें बारिश की। किरणें, चाँदनी।
और हवा
जो दिखती है सबसे
पहले उस पर। टिकती हैं आँखें
दुखी-सुखी।

देखो, देखो
पेड़ की रगों में भी बह रही
है वह कथा
जो इस वक़्त
तुम रहे हो सोच।