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|रचनाकार=द्विज
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|पीछे=देखत हीं बन फूले पलास / शृंगार-लतिका / द्विज
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|सारणी=शृंगार-लतिका / द्विज/ पृष्ठ 3
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'''दुर्मिला सवैया'''
''(चिंता-वर्णन)''

नख सौं भुँअ खोदत कोद चहूँ, अवलोकत हूँ नहिं जानि परैं ।
कर कौ अवलंब कपोलन दै, भुज के अवलंब कौं जानु धरैं ॥
इहिं भाँति सौं मौन ह्वै बैठौ घरीक, सु जाइ कैं काहू तमाल-तरैं ।
तन और के जीव सजीव मनौं, मन मानहुँ और की देह धरैं ॥३३॥
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