दुर्मिला सवैया
(चिंता-वर्णन)
नख सौं भुँअ खोदत कोद चहूँ, अवलोकत हूँ नहिं जानि परैं ।
कर कौ अवलंब कपोलन दै, भुज के अवलंब कौं जानु धरैं ॥
इहिं भाँति सौं मौन ह्वै बैठौ घरीक, सु जाइ कैं काहू तमाल-तरैं ।
तन और के जीव सजीव मनौं, मन मानहुँ और की देह धरैं ॥३३॥