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लुप्त हों न पलाश<br />
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बिन तुम्हारे होलिका त्यौहार<br />
था इक कल्पना भर<br />
हाट में बाक़ायदा<br />
तुम स्थान पाते थे बराबर<br />
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अब कहाँ वो रंग<br />
वो रंगीन भू-आकाश<br />
लुप्त हों न पलाश<br />
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'मख-अगन' सा दृष्टिगोचर<br />
है तुम्हारा यह कलेवर<br />
पर तुम्हारे पात नर ने<br />
वार डाले बीडियों पर<br />
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गाँव तो सब जानते हैं<br />
नगर समझें काश<br />
लुप्त हों न पलाश<br />