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लुप्त हों न पलाश / नवीन सी. चतुर्वेदी
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लुप्त हों न पलाश
बिन तुम्हारे होलिका त्यौहार
था इक कल्पना भर
हाट में बाक़ायदा
तुम स्थान पाते थे बराबर
अब कहाँ वो रंग
वो रंगीन भू-आकाश
लुप्त हों न पलाश
'मख-अगन' सा दृष्टिगोचर
है तुम्हारा यह कलेवर
पर तुम्हारे पात नर ने
वार डाले बीडियों पर
गाँव तो सब जानते हैं
नगर समझें काश
लुप्त हों न पलाश