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एक दिन मैं ढूंड लूंगा अपनी मंज़िल का पता
दौड़ कर उसका चिपटना मेरी बाहें थामनाथामकर
कांपते होंठो ने उसके वो सभी कुछ कह दिया
ले रहे हैं हम मज़ा अब झूठ के ही स्वाद का
जानते हैं सब इसे और तू भी "आज़र" जान ले
खाक में तबदील इक दिन यह बदन हो जाएगा
</Poem>