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मैं मुसाफिर ही रहूँगा उसने एसा क्यूँ कहा / पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र"
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11:09, 17 सितम्बर 2011
एक दिन मैं ढूंड लूंगा अपनी मंज़िल का पता
दौड़ कर उसका चिपटना मेरी बाहें
थामना
थामकर
कांपते होंठो ने उसके वो सभी कुछ कह दिया
ले रहे हैं हम मज़ा अब झूठ के ही स्वाद का
जानते हैं सब इसे और तू भी "आज़र"
जान
ले
खाक में तबदील इक दिन यह बदन हो जाएगा
</Poem>
Purshottam abbi "azer"
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