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मैं मुसाफिर ही रहूँगा उसने एसा क्यूँ कहा / पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र"
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मैं मुसाफिर ही रहूँगा उसने एसा क्यूँ कहा
एक दिन मैं ढूंड लूंगा अपनी मंज़िल का पता
दौड़ कर उसका चिपटना मेरी बाहें थामकर
कांपते होंठो ने उसके वो सभी कुछ कह दिया
हर नज़र का अपना-अपना देखने का ढंग है
वो बला की खूबसूरत तुमको कोई शक है क्या
सच कहा कड़वा लगेगा चाहे रस तुम घोल दो
ले रहे हैं हम मज़ा अब झूठ के ही स्वाद का
जानते हैं सब इसे और तू भी "आज़र" जान ले
खाक में तबदील इक दिन यह बदन हो जाएगा