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21:39, 18 नवम्बर 2011 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=मनु भारद्वाज
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<Poem>
माना के एक जहा है सितारों कि ओट में
कब तक फरेब दोगे नज़रों कि ओट में
ऐ कम-नज़र न देख बहारों को इस तरह
लाखों खिज़ा छुपी है बहारों कि ओट में
ना खेल तू ऐ नाखुदा मौजे-रवाँ के साथ
तूफाँ छुपे हुए हाँ किनारों कि ओट में
ऐ मेरे-कारवां ज़रा लिल्लाह होशियार
रहज़न भी चल रहे हैं कतारों कि ओट में
इज़हार-ए-इश्क़ आँखों ही आँखों में हो गया
बातें भी कि हैं उनसे इशारों कि ओट में
हर क़ाफ़िले का सू-ए-अदम रुख़ है ऐ 'मनु'
अंजाम-ए-ज़िन्दगी है मजारों कि ओट में </poem>