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पत्थर क्या नींद से भी बगीचे के ठीक बीचोबीचज्यादा पारदर्शी होता हैथा वह, फड़फड़ाता पंखकि और भी साफ दिख जाता हैजिस पर था जो पाखीउस में भी अपना सपनातुम जिसे उकेरने लगते हो-शिल्पी जो ठहरे !अचानक उड़ गया
पर क्या होता अब कौन है उन टुकड़ों कासाखीजिन्हें तुम अपने उकेरने मेंकि तब जिस ने खोले थे पंखपत्थर से उतार देते हो ?बगीचे के ठीक बीचोबीच वहऔर उस मूरत का जो-जैसी भी बुत होतुम्हारी ही पहचान होती हैपत्थर की नहीं गया फिर अब ?
उन में क्या सिसकता नहीं रहता होगापत्थर का कोईक्षत-विक्षत सपना अपना ?हाँ, पत्थर तो उपकरण ठहरा !उस का अपना क्या ?सपना क्या ?(1976)
तो क्या वे
जिन का अपना नहीं होता कुछ
उपकरण हो जाते हैं
मूरत करने को किसी और का सपना !
(1976)
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