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बदन का नील / रमेश रंजक
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14:47, 14 दिसम्बर 2011
<poem>
दर्द मेरे ज़िस्म पर जब ठोकता है कील
कौन है जो टाँग जाता है
वहा~म
वहाँ
कँदील
दीखती है नहीं आगत देह
अनिल जनविजय
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