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अजगरी संत्रास / रमेश रंजक

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टूटता अपनत्व कुंठित
व्योम से विच्छिन्न
उल्कापात
थक गई है नब्ज जब संवेदना की
क्या करे कमज़ोर संजीवन निवेदन
ओढ़ धूमिल धूप पीता अनमनापन।
</poem>
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