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|रचनाकार = ओमप्रकाश यती
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क्या खोएँगे आज न जाने
हम निकले हैं फिर कुछ पाने
ज़ाहिर खूब करें याराने
भीतर साधें लोग निशाने
कैसे - कैसे काम बनेगा
बुनते रहते ताने - बाने
अब भी यूँ लगता है जैसे
अम्मा बैठी है सिरहाने
घर ने मुझको ऐसे घेरा
छूटे सारे मीत पुराने
बेपरवाही भूल गए हम
रहते हैं हरदम कुछ ठाने
अम्मा तो जी भर के रोई
पीर सही चुपचाप पिता ने

</poem>‌
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