भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क्या खोएंगे आज न जाने / ओमप्रकाश यती

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


क्या खोएँगे आज न जाने
हम निकले हैं फिर कुछ पाने

ज़ाहिर खूब करें याराने
भीतर साधें लोग निशाने
 
कैसे - कैसे काम बनेगा
बुनते रहते ताने - बाने

अब भी यूँ लगता है जैसे
अम्मा बैठी है सिरहाने

घर ने मुझको ऐसे घेरा
छूटे सारे मीत पुराने

बेपरवाही भूल गए हम
रहते हैं हरदम कुछ ठाने


अम्मा तो जी भर के रोई
पीर सही चुपचाप पिता ने