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दांव पर दांव हम आजमाते रहे
उठ चले , फिर गिरे, फिर खडे खड़े हो गये,
होंठ पर चैन-बंशी सजाते रहे।
भीतियों ने बसेरे लिये प्राण में
पाँव बढते बढ़ते हुये डगमगाते रहे,
मन बिकल हो बिचरता रहा शून्य में
भावना के सुमन कसमसाते रहे,
कर्म पर हम स्वयं के लजाते रहे,
लिप्त होते रहे स्वार्थ के भाव से
हर घडी घड़ी द्वेष में हम नहाते रहे,
हो न पायीं सफल साधनाऐं कभी,
घंटियां उम्र भर हम बजाते रहे।
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