भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रोशनी की किरण / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान
Kavita Kosh से
रोशनी की किरण
रोशनी की किरण देख पाये नहीं ,
जिन्दगी भर दिये हम जलाते रहे।
पंख लेकर कटे, उड़ न पाये कभी
बाजुओं को उमर भर हिलाते रहे,
पर घटी कामनाएं न तिल भर कभी
दांव पर दांव हम आजमाते रहे
उठ चले , फिर गिरे, फिर खड़े हो गये,
होंठ पर चैन-बंशी सजाते रहे।
भीतियों ने बसेरे लिये प्राण में
पाँव बढ़ते हुये डगमगाते रहे,
मन बिकल हो बिचरता रहा शून्य में
भावना के सुमन कसमसाते रहे,
रात होती रही भोर होता रहा,
ओस के बिन्दु भी झिलमिलाते रहे।
देख जलते रहे दूसरों को सदा
कर्म पर हम स्वयं के लजाते रहे,
लिप्त होते रहे स्वार्थ के भाव से
हर घड़ी द्वेष में हम नहाते रहे,
हो न पायीं सफल साधनाऐं कभी,
घंटियां उम्र भर हम बजाते रहे।