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|संग्रह=दुष्चक्र में सृष्टा / वीरेन डंगवाल
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निद्रालस भरा-भरा
 
बियाबान अब न रहा ।
 
रास्ता आम है अब
 
और काफ़ी मशगूल ।
 
डैनों के बल फाटक के खम्भों पर लटकीं
 
काई पुती सीमेंट की फ़रिश्तिनें
 
ताकती हैं ट्राफ़िक को ।
 
इतने जाते हैं, इतने आते
 
मगर कोई आता नहीं ।
</poem>
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