{{KKCatNavgeet}}
<poem>
चल उठ पागल मन,सपनों वक्त की दुनिया दौड़ में चल।वही सफल माने गएअजनवी होकर भी जो पहचाने गए।
ऐसे अवसर मुझको चंद मिले हैंसब कुछ देखने का दावा किया जिसनेजब भाव, शब्द। और छंद मिले हैंघोषित हुआ वही सबसे पहले अंधातप-से निखरे तेरे बिरहा की अग्निर में जल।एक आदमी का बोझ न उठा जिससेजाने कितने शव ढो चुका है वह कंधा
जब-जब भीतर झांका खण्डिहर मिलेबाहर देखा तो बिखरते नर मिलेबाँस की दीवारें और छतें पुआल कीआंखों हर सावन को चाय की बर्फ में गया सुनहरा सूरज गल।तरह छाने गए।
जिन्द गी फकीर है मत अपनी कहहो न जाए बौना कहीं आदमकद आपकाखारे आंखों के नीर आंखों में रहयही सोचकर रहा हूँ अब तक मैं छोटाअस्ताआचल में अंधे को नहीं तो नैनसुख को मिलेगासिक्का सिक्का है सूरज, जिन्देगी रही है ढल।खरा हो या खोटा
अश्रुओं को शिव का गरल समझ पी जान्याय बंदरों से जब भी कराने गएवक्र प्रेम-पथ हैमुँह के कौर गए, सरल समझ जी जाअभी बिछुड़ेंगे कितने ही दमयन्तीह और नल।हाथों के दाने गए।
</poem>