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टुकड़ा टुकड़ा सच / राजेश श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
वक्त की दौड़ में वही सफल माने गए
अजनवी होकर भी जो पहचाने गए।
सब कुछ देखने का दावा किया जिसने
घोषित हुआ वही सबसे पहले अंधा
एक आदमी का बोझ न उठा जिससे
जाने कितने शव ढो चुका है वह कंधा
बाँस की दीवारें और छतें पुआल की
हर सावन को चाय की तरह छाने गए।
हो न जाए बौना कहीं आदमकद आपका
यही सोचकर रहा हूँ अब तक मैं छोटा
अंधे को नहीं तो नैनसुख को मिलेगा
सिक्का सिक्का है, खरा हो या खोटा
न्याय बंदरों से जब भी कराने गए
मुँह के कौर गए, हाथों के दाने गए।