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ख़्वाब इतने हैं यही बेचा करें
और क्या इस शहर में धंधा करें
क्या ज़रा सी बात का शिकवा करेंपार उतरने के लिए तो ख़ैर बिलकुल चाहियेशुक्रिये से उसको शर्मिंदा करेंबीच दरिया डूबना भी हो तो इक पुल चाहिये
तू कि हमसे भी न बोले एक लफ़्ज़फ़िक्र तो अपनी बहुत है बस तगज्ज़ुल चाहियेऔर हम सबसे तिरा चर्चा करेंनाला-ए-बुलबुल को गोया खंदा-ए-गुल चाहिये
सबके चेह्रे एक जैसे हैं तो क्याशख्सियत में अपनी वो पहली सी गहराई नहींआप मेरे ग़म का अंदाज़ा करेंफिर तेरी जानिब से थोडा सा तगाफ़ुल चाहिये
ख़्वाब उधर जिनको क़ुदरत है और हक़ीक़त है इधरतखैय्युल पर उन्हें दिखता नहींबीच में हम फँस गये जिनकी ऑंखें ठीक हैं क्या करेंउनको तखैय्युल चाहिए
हर कोई बैठा है लफ़्ज़ों पर सवाररोज़ हमदर्दी जताने के लिए आते हैं लोगहम ही क्यों मफ़हूम का पीछा करेंमौत के बाद अब हमें जीना न बिलकुल चाहिए
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