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00:34, 16 मई 2013 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=नीरज दइया
|संग्रह=उचटी हुई नींद / नीरज दइया
}}
{{KKCatKavita}}<poem>अर्थ के अथाह जंगल में
बिखरे हैं कांटे
फैला है-
ढेर-सा दल-दल।
शब्दों का एक दल
परिचित है शायद
कुछ शब्द बुलाते हैं-
मुझे बार बार।
जब तक है यह आमंत्रण
इसी धरती पर रहूंगा मैं।</poem>
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