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आमंत्रण / नीरज दइया
Kavita Kosh से
अर्थ के अथाह जंगल में
बिखरे हैं कांटे
फैला है-
ढेर-सा दल-दल।
शब्दों का एक दल
परिचित है शायद
कुछ शब्द बुलाते हैं-
मुझे बार बार।
जब तक है यह आमंत्रण
इसी धरती पर रहूंगा मैं।