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|रचनाकार=रविंदर कुमार सोनी
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सियाह बादल जो आस्मान में थे
सूए सहरा वो कब उड़ान में थे

उक़्दे खुलते थे जिन से हस्ती के
ऐसे क़िस्से भी दास्तान में थे

बन कर उम्मीद वलवले उठ्ठे
वो जो दिल मेरे बेकरान में थे

किस निशाने पे जा लगेंगे सोच
रुक गए तीर जो कमान में थे

पास आए तो रफ़्ता रफ़्ता खुले
सारे परदे जो दरमियान में थे

जिस को सदियाँ तराशते गुज़रीं
अक्स पिन्हाँ उसी चट्टान में थे

ना समझ पाए शोर ओ ग़ुल में तिरे
बोल जाने वो किस ज़बान में थे

ऐ रवि ले उड़ी उन्हें भी हवा
फूल सारे जो गुलिस्तान में थे
</poem>