874 bytes added,
11:15, 18 अगस्त 2013 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार='रासिख़' अज़ीमाबादी
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
तुम्हें ऐसा बे-रहम जाना न था
ग़रज़ क्या कहें दिल लगाना न था
अगर उस गली से निकलते तो फिर
दो आलम में अपना ठिकाना न था
लिया इम्तिहान-ए-वफ़ा ही में जी
हमें याँ तलक आज़माना न था
वो था कौन सा तेरा तीर-ए-सीतम
कि मैं आह उस का निशाना न था
किया किस की आँखों ने ‘रासिख़’ पे सेहर
वो आगे तो ऐसा दिवाना न था
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader