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तुम्हें ऐसा बे-रहम जाना न था / 'रासिख़' अज़ीमाबादी

तुम्हें ऐसा बे-रहम जाना न था
ग़रज़ क्या कहें दिल लगाना न था

अगर उस गली से निकलते तो फिर
दो आलम में अपना ठिकाना न था

लिया इम्तिहान-ए-वफ़ा ही में जी
हमें याँ तलक आज़माना न था

वो था कौन सा तेरा तीर-ए-सीतम
कि मैं आह उस का निशाना न था

किया किस की आँखों ने ‘रासिख़’ पे सेहर
वो आगे तो ऐसा दिवाना न था