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{{KKRachna
|रचनाकार=सविता सिंह
|संग्रह=नींद थी और रात थी
}}


शाम ढल चुकी थी

रात पसार रही थी अपना आँचल

आसमान से नीला प्रकाश झर रहा था

सामने का एक पेड़ उस में नहा रहा था

तभी उसकी एक डाल हौले-से हिली थी

सम्भव था उसे हवा ने हिलाया हो

या किसी चिड़िया ने खुजलाई हो वहाँ बैठ कर अपनी गरदन

या फिर बदली हो जगह

गई हो एक डाल से कूदकर दूसरी डाल पर


सम्भव था इससे दुनिया सुन्दर हुई हो

उदास किन्हीं आँखों में जीवन की चमक लौटी हो
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