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|रचनाकार=मुज़फ़्फ़र हनफ़ी
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मज़े से गिन सितारे छत न हो तो
समंदर क्या अगर वुसअत न हो तो

कहा ठंडी हवा ने कैक्टस से
इधर भी आइयो ज़ह्मत न हो तो

तुम्हें भी आ गया ख़ैरात करना
कोई फ़ितना सही आफ़त न हो तो

बहारों में नहीं उठते बग़ूले
जुनूँ क्या कीजिए वहशत न हो तो

कभी सोचा कि हम किस हाल में हैं
कोई शे’र आपकी बाबत न हो तो

हमारा आसमाँ भी छीन लेते
मगर वो क्या करें क़ुदरत न हो तो

‘मुज़फ़्फ़र’ दर्दे-सर है शाइरी भी
किसी हमदर्द की हाज़त न हो तो

</poem>
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