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09:00, 22 अप्रैल 2014 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=विपिन चौधरी
|अनुवादक=
|संग्रह=
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<poem>
मामला टीस का ना हो
तो बेहतर
पर कम या ज्यादा
मामला टीस का ही है
उखडती है टीस
तो दर्द देती है
दबी रहती है
तो कहीं ज्यादा दुख देती है
तमाम खुशगवारियाँ कहीं पीछे रह
जाती हैं
सदा से बियाबान धरती का क्या क्हना
तारों भरा आकाश
भी इसके रहते सूना लगने लगता है
ना चाँद से काम निकलता है
ना तारें ही काम आते हैं
कभी कम
कभी ज्यादा
टीस हाज़िर है भीतर हमेशा।
</poem>