1,023 bytes added,
04:11, 13 मई 2014 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=वाज़दा ख़ान
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
सदी के इस महाकुंभ में
सूर्य की रश्मियों के बीच
मैंने तुम्हें
बांहें फैलाए
आंसुओं में बिलखते देखा
मां!
हां, तुम ही थी मां
होठों पर तुम्हारे
एक टेर थी-
‘मेरे लाल’
मुझे छोड़कर तू कहां गया?
और मां का वह लाल
जिसे अपने रक्त और
आंसुओं से सींचकर
बड़ा किया था
वह प्रयाग की इस त्रिवेणी में
अपने पापों को धोने
के साथ
अपनी इस गठरी का
बोझ भी
उतार गया.
</poem>