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|रचनाकार=हनुमानप्रसाद पोद्दार
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|संग्रह=पद-रत्नाकर / भाग- 4 / हनुमानप्रसाद पोद्दार
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<poem>
स्यामघन दामिनि प्रगट भ‌ई॥

रस-नृप रसिक-रिझावनि पावनिरया सुरसम‌ई।
अंग-‌अंग अतुलित श्री-शोभा कोटिक रति लज‌ई॥

सकल-विस्व-‌आकर्षक-अकर्षिनि छबि सौंदर्य छ‌ई।
नित्य पराजित रहत सहज जो अखिल जगत बिज‌ई॥

परम सती प्रिय-सुख-कामिनि नित निज सुख बिसरि ग‌ई।
रूप-रासि गुन-रासि अमित सुचि प्रगटत न‌ई-न‌ई॥
</poem>
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